जनसत्ता की रिपोर्ट के अनुसार एएसजे ने कहा, ‘‘यह कहते हुए पीड़ा होती है कि दंगे के बहुत सारे मामलों में जांच का मापदंड बहुत घटिया है । ’’ उन्होंने कहा कि ज्यादातर मामलों में जांच अधिकारी अदालत में पेश नहीं हो रहे हैं।
न्यायाधीश ने कहा कि पुलिस आधे-अधूरे आरोपपत्र दायर करने के बाद जांच को तार्किक परिणति तक ले जाने की बमुश्किल ही परवाह करती है जिस वजह से कई आरोपों में नामजद आरोपी सलाखों के पीछे बने हुए हैं। एएसजे ने 28 अगस्त को अपने आदेश में कहा, ‘‘ यह मामला इसका जीता-जागता उदाहरण है, जहां पीड़ित स्वयं ही पुलिसकर्मी हैं, लेकिन जांच अधिकारी को तेजाब का नमूना इकट्ठा करने और उसका रासायनिक विश्लेषण कराने की परवाह नहीं है। जांच अधिकारी ने चोट की प्रकृति को लेकर राय भी लेने की जहमत नहीं उठायी है।’’
अदालत ने कहा कि इसके अलावा मामले के जांच अधिकारी इन आरोपों पर बहस के लिए अभियोजकों को ब्रीफ नहीं कर रहे हैं और वे सुनवाई की सुबह उन्हें बस आरोपपत्र की पीडीएफ प्रति मेल कर दे रहे हैं। एएसजे यादव ने इस मामले में इस आदेश की प्रति दिल्ली पुलिस के आयुक्त के पास ‘उनके सदंर्भ एवं सुधार के कदम उठाने के वास्ते (उनके द्वारा) जरूरी निर्देश देने के लिए’ भेजे जाने का भी निर्देश दिया।
अदालत ने कहा, ‘‘ वे इस संबंध में विशेषज्ञों की राय लेने के लिए स्वतंत्र हैं, अन्यथा इन मामलों में शामिल लोगों के साथ नाइंसाफी होने की संभावना है।’’ फरवरी, 2020 में उत्तरपूर्व दिल्ली में संशोधित नागरिकता कानून के समर्थकों एवं विरोधियों के बीच हिंसा के बाद सांप्रदायिक दंगा भड़क गया था जिसमें कम से कम 53 लोगों की जान चली गयी थी और 700 से अधिक घायल हुए थे।
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