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कैसे टीपू सुल्तान ने लड़कर दलित महिलाओं को अपना स्तन ढकने का अधिकार दिलाया था?

केरल के त्रावणकोर इलाके, खास तौर पर वहां की महिलाओं के लिए 26 जुलाई का दिन बहुत महत्वपूर्ण है। इसी दिन 1859 में वहां के महाराजा ने अवर्ण औरतों को शरीर के ऊपरी भाग पर कपड़े पहनने की इजाज़त दी थी। अजीब लग सकता है, पर केरल जैसे प्रगतिशील माने जाने वाले राज्य में भी महिलाओं को अंगवस्त्र या ब्लाउज़ पहनने का हक पाने के लिए 50 साल से ज़्यादा सघन संघर्ष करना पड़ा।

स्तन ढकने को लेकर क्या नियम थे?

इस कुरूप परंपरा की चर्चा में खास तौर पर निचली जाति नादर की स्त्रियों का ज़िक्र होता है क्योंकि अपने वस्त्र पहनने के हक के लिए उन्होंने ही सबसे पहले विरोध जताया। नादर की ही एक उपजाति नादन पर ये बंदिशें उतनी नहीं थीं। उस समय न सिर्फ अवर्ण बल्कि नंबूदिरी ब्राह्मण और क्षत्रिय नायर जैसी जातियों की औरतों पर भी शरीर का ऊपरी हिस्सा ढकने से रोकने के कई नियम थे।

नंबूदिरी औरतों को घर के भीतर ऊपरी शरीर को खुला रखना पड़ता था। वे घर से बाहर निकलते समय ही अपना सीना ढक सकती थीं लेकिन मंदिर में उन्हें ऊपरी वस्त्र खोलकर ही जाना होता था। नायर औरतों को ब्राह्मण पुरुषों के सामने अपना वक्ष खुला रखना होता था। सबसे बुरी स्थिति दलित औरतों की थी जिन्हें कहीं भी अंगवस्त्र पहनने की मनाही थी। पहनने पर उन्हें सजा भी हो जाती थी।


एक घटना बताई जाती है जिसमें एक निम्न जाति की महिला अपना सीना ढक कर महल में आई तो रानी अत्तिंगल ने उसके स्तन कटवा देने का आदेश दे डाला। इस अपमानजनक रिवाज के खिलाफ 19 वीं सदी के शुरू में आवाजें उठनी शुरू हुईं।

उच्च वर्ग के लोग जबरन महिलाओं के वस्त्र उदार देते थे

18 वीं सदी के अंत और 19 वीं सदी के शुरू में केरल से कई मजदूर, खासकर नादन जाति के लोग चाय बागानों में काम करने के लिए श्रीलंका चले गए। बेहतर आर्थिक स्थिति, धर्म बदल कर ईसाई बन जाने और यूरोपीय असर की वजह से इनमें जागरूकता ज़्यादा थी और ये औरतें अपने शरीर को पूरा ढकने लगी थीं। धर्म-परिवर्तन करके ईसाई बन जाने वाली नादर महिलाओं ने भी इस प्रगतिशील कदम को अपनाया।

इस तरह महिलाएं अक्सर इस सामाजिक प्रतिबंध को अनदेखा कर सम्मानजनक जीवन पाने की कशिश करती रहीं। यह कुलीन मर्दों को बर्दाश्त नहीं हुआ। ऐसी महिलाओं पर हिंसक हमले होने लगे। जो भी इस नियम की अवहेलना करती उसे सरे बाजार अपने ऊपरी वस्त्र उतारने को मजबूर किया जाता।


अवर्ण औरतों को छूना न पड़े इसके लिए सवर्ण पुरुष लंबे डंडे के सिरे पर छुरी बांध लेते और किसी महिला को ब्लाउज या कंचुकी पहना देखते तो उसे दूर से ही छुरी से फाड़ देते। यहां तक कि वे औरतों को इस हाल में रस्सी से बांध कर सरे आम पेड़ पर लटका देते ताकि दूसरी औरतें ऐसा करते डरें।

टीपू सुल्तान ने दलित महिलाओं को दिलाया था सम्मान से जीने का अधिकार

सोशियल मीडिया पर ब्राह्माणवादी यानी मनुवादी लोग मातम मनाते हैं कि टीपू ने 700 ब्राह्मणों को मार दिया था। टीपू सुलतान ने अछूत महिलाओं को स्थन ढकने की अनुमति दी थी, वही खीज आज निकाली जा रही है। कोई भी राजा हो क्या वह अन्याय इसलिए ना देखे और दंड ना दे कि यह अन्यायी उसके धर्म का नहीं और इस कारण से भविष्य में उसपर अन्य धर्मों के उपर किये अत्याचार के लिए गालियां दी जाएंगी?

संघी और वाम इतिहासकारों ने टीपू सुल्तान को लेकर थोड़ा बड़ा दिल दिखाया पर अब टीपू सुल्तान को भी विवादित करने का प्रयास किया गया और औरंगजेब के जैसा बनाने का प्रयास किया गया। इतिहासकार टीपू सुल्तान के प्रति इसलिए झूठ ना लिख सके क्योंकि टीपू सुल्तान का सारा इतिहास बहुत करीब के दिनों का है।

साथ ही यह तथ्य और सबूत है कि वह अंग्रेज़ों से लड़ते हुए शहीद हुए और अपनी पूरी सल्तनत बर्बाद कर दी। दरअसल उनको बदनाम भी केवल सवर्ण कर रहे हैं, हकीकत यह है कि यदि इस देश के इतिहास को यदि निष्पक्ष रूप से लिख दिया जाए तो आज अचानक पैदा हो गये बड़े-बड़े महापुरुष नंगे हो जाएंगे और जिन्हें खलनायक बनाया जा रहा है वह देश के महापुरुष हो जाएं।

संघ को टीपू सुल्तान से इतनी नफरत क्यों होती है?

राजाओं की साम्राज्यवाद के कारणों से हुई लड़ाईयों को हिन्दू-मुस्लिम की लड़ाई प्रस्तुत किया जा रहा है और लड़ाई में मरने वाले सैनिकों को गिन-गिनकर बताया जा रहा है कि इतने वध उस मुस्लिम शासक ने किये। जैसे हिन्दू राजाओं ने युद्ध में विरोधी सेनाओं का धर्म देखकर ही मारा हो कि केवल मुस्लिम सैनिक मारें जाएं। हिन्दू सैनिकों को कोई नुकसान ना हो चाहे विरोधी सेना का ही क्यों ना हो।

तब तो ऐसा कुछ नहीं हुआ पर अब ऐसा ही किया जा रहा है। ब्रिटेन की नेशनल आर्मी म्यूज़ियम ने अंग्रेजी हुकूमत से लोहा लेने वाले 20 सबसे बड़े दुश्मनों की लिस्ट बनाई है जिसमें केवल दो भारतीय योद्धाओं को ही इसमें जगह दी गई।

नेशनल आर्मी म्यूज़ियम के आलेख के अनुसार टीपू सुल्तान अपनी फौज को यूरोपियन तकनीक के साथ ट्रेनिंग देने में विश्वास रखते थे। टीपू विज्ञान और गणित में गहरी रुचि रखते थे और उनकी मिसाइलें अंग्रेजों के मिसाइल से ज़्यादा उन्नत थे, जिनकी मारक क्षमता दो किलोमीटर तक थी।

जो अंग्रेज टीपू से इतना घबराते थे उनके बनाए झूठे इतिहास को दिखाकर संघ के लोग टिपू का विरोध कर रहे हैं। सच यह है कि विरोध कर रहे ऐसे लोग ही भारत के निष्पक्ष इतिहास के लिखने पर नंगे हो जाएंगे क्योंकि यही लोग हर दौर में अत्याचारी रहे हैं और इसी अत्याचार को करने के लिये इन लोगों ने टीपू से अंग्रेजों की लड़ाई में अंग्रेजों का साथ दिया था।

 


टीपू सुल्तान को हराने के लिए सारे राजाओं ने अंग्रेजों से दोस्ती कर ली

त्रावणकोर के सवर्ण महाराजा मराठे और हैदराबाद के निजाम अंग्रेजों के सबसे बड़े मित्र थे। चारों ने मिलकर एक अकेले टीपू सुल्तान के विरूद्ध युद्ध किया जिससे इनकी अय्याशियां चलती रहें और देश जाए भाड़ में। चाहे इसपर अंग्रेजों का राज हो या राक्षसों का। दरअसल जो ब्राह्मणों की हत्याएं करने का आरोप टीपू सुल्तान पर है वह त्रावणकोर राज्य में है जहां का ब्राम्हण राजा निरंकुश और अय्याश था।

उसके जुल्मों से वहां की जनता को छुटकारा दिलाने के लिए टीपू ने उसपर आक्रमण किया और युद्ध में त्रावणकोर की सेना में शामिल ब्राम्हण मारे गए। अंततः राजा को वहां की दलित महिलाओं को न्याय देना पड़ा। 1814 में त्रावणकोर के अंग्रेजों के चमचे दीवान कर्नल मुनरो ने आदेश निकलवाया कि ईसाई नादन और नादर महिलाएं ब्लाउज पहन सकती हैं।

मगर इसका कोई फायदा न हुआ। उच्च सवर्ण के पुरुष इस आदेश के बावजूद लगातार महिलाओं को अपनी ताकत और असर के सहारे इस शर्मनाक अवस्था की ओर धकेलते रहे। आठ साल बाद फिर ऐसा ही आदेश निकाला गया। एक तरफ शर्मनाक स्थिति से उबरने की चेतना का जागना और दूसरी तरफ समर्थन में अंग्रेजी सरकार का आदेश। ज़्यादा महिलाओं ने शालीन कपड़े पहनने शुरू कर दिए।

अदालत में गवाही देने के लिए भी अंगवस्त्र उतारकर अंदर जाना पड़ा था

इधर उच्च वर्ग के पुरुषों का प्रतिरोध भी उतना ही तीखा हो गया। एक घटना बताई जाती है कि नादर ईसाई महिलाओं का एक दल निचली अदालत में ऐसे ही एक मामले में गवाही देने पहुंचा। उन्हें दीवान मुनरो की आंखों के सामने अदालत के दरवाजे पर अपने अंग वस्त्र उतार कर रख देने पड़े। तभी वे भीतर जा पाईं। संघर्ष लगातार बढ़ रहा था और उसका हिंसक प्रतिरोध भी। सवर्णों के अलावा राजा खुद भी परंपरा निभाने के पक्ष में था।

क्यों न होता? आदेश था कि महल से मंदिर तक राजा की सवारी निकले तो रास्ते पर दोनों ओर नीची दलित जातियों की अर्धनग्न कुंवारी महिलाएं फूल बरसाती हुई खड़ी रहें। उस रास्ते के घरों के छज्जों पर भी राजा के स्वागत में औरतों को खड़ा रखा जाता था। राजा और उसके काफिले के सभी पुरुष इन दृश्यों का भरपूर आनंद लेते थे।

आखिर 1829 में इस मामले में एक महत्वपूर्ण मोड़ आया। सवर्ण पुरुषों की लगातार नाराजगी के कारण राजा ने आदेश निकलवा दिया कि किसी भी दलित जाति की औरत अपने शरीर का ऊपरी हिस्सा ढक नहीं सकती। अब तक ईसाई औरतों को जो थोड़ा समर्थन दीवान के आदेशों से मिल रहा था, वह भी खत्म हो गया। अब हिंदू-ईसाई सभी वंचित महिलाएं एक हो गईं और उनके विरोध की ताकत बढ़ गई। सभी जगह महिलाएं पूरे कपड़ों में बाहर निकलने लगीं। इस पूरे आंदोलन का सीधा संबंध भारत की आजादी की लड़ाई के इतिहास से भी है।

टीपू सुल्तान ने त्रावणकोर को हराकर इस रूढ़िवादी व्यवस्था का अंत किया

टीपू सुल्तान ने इसी अन्याय को समाप्त करने के लिए त्रावणकोर पर आक्रमण किया जिससे त्रावणकोर की सेना के तमाम लोग मारे गए। जिसे आज ब्राम्हणों के वध के रूप में बताकर उनका विरोध किया जा रहा है। उसी युद्व में विरोधियों ने ऊंची जातियों के लोगों दुकानों और सामान को लूटना शुरू कर दिया। राज्य में शांति पूरी तरह भंग हो गई।

दूसरी तरफ नारायण गुरु और अन्य सामाजिक, धार्मिक गुरुओं ने भी इस सामाजिक रूढ़ि का विरोध किया और अंततः 26 जुलाई 1859 को वहां के राजा ने दलित औरतों को स्तन ढकने की अनुमति प्रदान की। टीपू सुल्तान से वही खीज आज निकाली जा रही है ।

ज़रा सोचिएगा कि त्रावणकोर का राजा कोई मुस्लिम होता और दलितों के साथ ऐसा व्यवहार होता तो आज क्या स्थिति होती और यदि टीपू कोई दीपू होता तो आज के दौर में दलित औरत को स्तन ढकने के लिए अनुमती नहीं मिल पाती।

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