30 मई 1866 ई० को आज ही के दिन दारुल-उलूम देवबंद की स्थापना हुई थी।
इस्लामी दुनिया में दारुल उलूम देवबन्द का एक विशेष स्थान है जिसने पूरे क्षेत्र को ही नहीं, पूरी दुनिया के मुसलमानों को प्रभावित किया है। दारुल उलूम देवबन्द केवल इस्लामी विश्वविद्यालय ही नहीं एक विचारधारा है जो अंधविश्वास, कुरीतियों और आडम्बरों के विरुद्ध इस्लाम को अपने मूल और शुद्ध रूप में प्रसारित करता है इसलिए मुसलमानों में इस विचारधारा से प्रभावित मुसलमानों को देवबन्दी कहा जाता है।
देवबन्द उत्तर प्रदेश के महत्वपूर्ण नगरों में गिना जाता है जो आबादी के लिहाज से तो एक लाख से कुछ ज्यादा आबादी का एक छोटा सा नगर है। लेकिन दारुल उलूम ने इस नगर को बड़े-बड़े नगरों से भारी सम्मानजनक बना दिया है, जो न केवल अपने गर्भ में ऐतिहासिक पृष्ठ भूमि रखता है, अपितु आज भी साम्प्रदायिक सौहार्द, धर्मनिरपेक्षता एवं देश प्रेम का एक अजीब नमूना प्रस्तुत करता है।
आज देवबन्द इस्लामी शिक्षा व दर्शन के प्रचार के और प्रसार के लिए संपूर्ण संसार में प्रसिद्ध है। भारतीय संस्कृति व इस्लामी शिक्षा एवं संस्कृति में जो समन्वय आज हिन्दुस्तान में देखने को मिलता है उसका सीधा-साधा श्रेय देवबन्द दारुल उलूम को जाता है। यह मदरसा मुख्य रूप से उच्च अरबी व इस्लामी शिक्षा का केंद्र बिन्दु है। दारुल उलूम ने न केवल इस्लामिक शोध और सहित्य के संबंध में विशेष भूमिका निभायी है, बल्कि भारतीय पर्यावरण में इस्लामिक सोच व संस्कृति को नवीन आयाम तथा अनुकूलन दिया है।
दारुल उलूम देवबन्द की आधारशिला 30 मई 1866 में हाजी आबिद हुसैन रह० और मौलाना कासिम नानौतवी रह० द्वारा रखी गयी थी। वह समय भारत के इतिहास में राजनैतिक उथल-पुथल और तनाव का समय था, उस समय अंग्रेजों के विरूद्ध लड़े गये प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (1857 ई.) की असफलता के बादल छंट भी न पाये थे और अंग्रेजों का भारतीयों के प्रति दमनचक्र तेज कर दिया गया था, चारों ओर हा-हा-कार मचा था। अंग्रेजों ने अपनी संपूर्ण शक्ति से स्वतंत्रता आंदोलन (1857) को कुचल कर रख दिया था। अधिकांश आंदोलनकारी शहीद बना दिये गये थे और शेष को गिरफ्तार कर लिया गया था, ऐसे सुलगते माहौल में देशभक्त और स्वतंत्रता सेनानियों पर निराशाओं के प्रहार होने लगे थे।
चारो ओर खलबली मची हुई थी। एक प्रश्न चिन्ह सामने था कि किस प्रकार भारत के बिखरे हुए समुदायों को एकजुट किया जाये, किस प्रकार भारतीय संस्कृति और शिक्षा जो टूटती और बिखरती जा रही थी, की सुरक्षा की जाये। उस समय के नेतृत्व में यह अहसास जागा कि भारतीय जीर्ण व खंडित समाज उस समय तक विशाल एवं जालिम ब्रिटिश साम्राज्य के मुकाबले नहीं टिक सकता, जब तक सभी वर्गों, धर्मों व समुदायों के लोगों को देश प्रेम और देश भक्त के जल में स्नान कराकर एक सूत्र में न पिरो दिया जाये। इस कार्य के लिए न केवल कुशल व देशभक्त नेतृत्व की आवश्यकता थी, बल्कि उन लोगों व संस्थाओं की आवश्यकता थी जो धर्म व जाति से ऊपर उठकर देश के लिए बलिदान कर सकें।
इन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जिन महान स्वतंत्रता सेनानियों व संस्थानों ने धर्मनिरपेक्षता व देशभक्ति का पाठ पढ़ाया उनमें दारुल उलूम देवबन्द के कार्यों व सेवाओं को भुलाया नहीं जा सकता। स्वर्गीय मौलाना महमूद उल हसन रह० उन सेनानियों में से एक थे जिनके कलम, ज्ञान, आचार व व्यवहार से एक बड़ा समुदाय प्रभावित था, इन्हीं विशेषताओं के कारण इन्हें शैखुल हिन्द की उपाधि से विभूषित किया गया था, उन्हों ने न केवल भारत में वरन विदेशों में जाकर भारत व ब्रिटिश साम्राज्य की भर्त्सना की और भारतीयों पर हो रहे अत्याचारों के विरूद्ध जी खोलकर अंग्रेजी शासक वर्ग की मुखालफत की। बल्कि शैखुल हिन्द रह० ने अफगानिस्तान व ईरान की हुकूमतों को भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के कार्यक्रमों में सहयोग देने के लिए तैयार करने में एक विशेष भूमिका निभाई। उदाहरणतयः यह कि उन्होंने अफगानिस्तान व ईरान को इस बात पर राजी कर लिया कि यदि तुर्की की सेना भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के विरूद्ध लड़ने पर तैयार हो तो जमीन के रास्ते तुर्की की सेना को आक्रमण के लिए आने देंगे।
शैखुल हिन्द ने अपने सुप्रिम शिष्यों व प्रभावित व्यक्तियों के माध्यम से अंग्रेजों के विरूद्ध प्रचार आरंभ किया और हजारों मुस्लिम आंदोलनकारियों को ब्रिटिश साम्राज्य के विरूद्ध चल रहे राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल कर दिया। इनके प्रमुख शिष्य मौलाना हुसैन अहमद मदनी रह०, मौलाना उबैदुल्ला सिंधी रह० थे जो जीवन पर्यन्त अपने गुरू की शिक्षाओं पर चलते रहे, और अपने देशप्रेमी भावनाओं व नीतियों के कारण ही भारत के मुसलमान स्वतंत्रता सेनानियों व आंदोलनकारियों में एक भारी स्तम्भ के रूप में जाने जाते हैं ।
सन 1914 ई. में मौलाना उबैदुल्ला सिंधी रह० ने अफगानिस्तान जाकर अंग्रेजों के विरूद्ध अभियान चलाया और काबुल में रहते हुए भारत की सर्वप्रथम स्वतंत्र सरकार स्थापित की जिसका राष्ट्रपति राजा महेन्द्र प्रताप को बनाया गया। यहीं पर रहकर उन्होंने इंडियन नेशनल कांग्रेस की एक शाखा कायम की जो बाद में (1922 ई. में) मूल कांग्रेस संगठन इंडियन नेशनल कांग्रेस में विलय कर दी गयी। शेखुल हिन्द रह० 1915 ई. में हिजाज' चले गये, उन्होनें वहां रहते हुए अपने साथियों द्वारा तुर्की से संपर्क बना कर सैनिक सहायता की मांग की।
सन 1916 ई. में इसी संबंध में शेखुल हिन्द रह० इस्तमबूल जाना चाहते थे। मदीने में उस समय तुर्की का गवर्नर गालिब पाशा तैनात था। उसने शेखुल हिन्द रह० को इस्तमबूल के बजाये तुर्की जाने की लिए कहा परन्तु उसी समय तुर्की के युद्धमंत्री अनवर पाशा हिजाज पहुंच गये। शेखुल हिन्द रह० ने उनसे मुलाकात की और अपने आंदोलन के बारे में बताया। अनवर पाशा ने भारतीयों के प्रति सहानुभूति प्रकट की और अंग्रेज साम्राज्य के विरूद्ध युद्ध करने की एक गुप्त योजना तैयार की। हिजाज से यह गुप्त योजना, गुप्त रूप से शेखुल हिन्द ने अपने शिष्य मौलाना उबैदुल्ला सिंधी रह० को अफगानिस्तान भेजा, मौलाना सिंधी रह० ने इसका उत्तर एक रेशमी रूमाल पर लिखकर भेजा, इसी प्रकार रूमालों पर पत्र व्यवहार चलता रहा। यह गुप्त सिलसिला 'तहरीक ए रेशमी रूमाल' के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध है। इसके सम्बंध में सर रोलेट ने लिखा है कि "ब्रिटिश सरकार इन गतिविधियों पर हक्का बक्का थी ।
सन 1916 ई. में अंग्रेजों ने किसी प्रकार शेखुल हिन्द रह० को मदीने में गिरफ्तार कर लिया। हिजाज से उन्हें मिश्र लाया गया और फिर रोम सागर के एक टापू मालटा में उनके साथियों मौलाना हुसैन अहमद मदनी रह०, मौलाना उजैर गुल रह०, मौलाना हकीम सैय्यद नुसरत हुसैन रह० ,मौलाना वहीद अहमद रह०,सहित जेल में डाल दिया था। इन सबको चार वर्ष की बामुशक्कत सजा दी गयी। सन 1920 में इन महान सैनानियों की रिहाई हुई।
शेखुल हिन्द रह० की अंग्रेजों के विरूद्ध तहरीके- रेशमी रूमाल, मौलाना सैयद हुसैन अहमद अमदनी रह० की सन 1936 से सन 1945 तक जेल यात्रा, मौलाना उजैर गुल रह०, मौलाना सैयद हकीम नुसरत हुसैन रह०, मौलाना वहीद अहमद रह० का मालटा जेल की पीड़ा झेलना, मौलाना उबैदुल्लाह सिंधी रह० की सेवायें इस तथ्य का स्पष्ट प्रमाण हैं कि दारुल उलूम ने स्वतंत्रता संग्राम मैं मुख्य भूमिका निभाई है। इस संस्था ने ऐसे अनमोल रत्न पैदा किये जिन्होंने अपनी मातृभूमि को स्वतंत्र कराने के लिए अपने प्राणों को दांव पर लगा दिया। ए. डब्ल्यू मायर सियर पुलिस अधीक्षक (सीआईडी राजनैतिक) पंजाब ने अपनी रिपोर्ट नं. 122 में लिखा था जो आज भी इंडिया आफिस लंदन में सुरक्षित है कि 'मौलाना महमूद उल हसन शेखुल हिन्द रह० जिन्हें रेशमी रूमाल पर पत्र लिखे गये, सन 1915 ई. को हिजरत करके हिजाज चले गये थे, रेशमी खतूत की साजिश में जो मौलवी सम्मिलित हैं, वह लगभग सभी देवबन्द स्कूल से संबंधित हैं।
गुलाम रसूल मेहर ने अपनी पुस्तक 'सरगुजस्त ए मुजाहिदीन (उर्दू) के पृष्ठ नं. 552 पर लिखा है कि मेरे अध्ययन और विचार का सारांश यह है कि हजरत शेखुल हिन्द रह० अपनी जिन्दगी के प्रारंभ में एक रणनीति का खाका तैयार कर चुके थे और इसे कार्यान्वित करने की कोशिश उन्होंने उस समय आरंभ कर दी थी जब हिन्दुस्तान के अंदर राजनीतिक गतिविधियां केवल नाममात्र थी।
उड़ीसा के पूर्व गवर्नर श्री विशम्भर नाथ पाण्डे ने एक लेख में लिखा है कि दारुल उलूम देवबन्द भारत के स्वतंत्रता संग्राम में केंद्र बिन्दु जैसा ही था, जिसकी शाखायें दिल्ली, दीनापुर, अमरोत, कराची, खेडा और चकवाल में स्थापित थी। भारत के बाहर उत्तर पश्चिमी सीमा पर छोटी सी स्वतंत्र रियासत "यागिस्तान भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का केंद्र था, यह आंदोलन केवल मुसलमानों का न था बल्कि पंजाब के सिक्खों व बंगाल की इंकलाबी पार्टी के सदस्यों को भी इसमें शामिल किया था।
इसी प्रकार असंख्य तथ्य ऐसे हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि दारुल उलूम देवबन्द स्वतंत्रता संग्राम के पश्चात भी देश प्रेम का पाठ पढ़ाता रहा है जैसे सन 1947 ई. में भारत की आजादी तो मिली, परन्तु साथ-साथ नफरतें आबादियों का स्थानांतरण व बंटवारा जैसे कटु अनुभव का समय भी आया, परन्तु दारुल उलूम की विचार धारा टस से मस न हुई। इसने डट कर इन सबका विरोध किया और इंडियन नेशनल कांग्रेस के संविधान में ही अपना विश्वास व्यक्त कर पाकिस्तान का विरोध किया तथा अपने देशप्रेम व धर्म निरपेक्षता का उदाहरण दिया। आज भी दारुल उलूम अपने देशप्रेम की विचारधारा के लिए संपूर्ण भारत में प्रसिद्ध है।
दारुल उलूम देवबन्द में पढ़ने वाले विद्यार्थियों को मुफ्त शिक्षा, भोजन, आवास व पुस्तकों की सुविधा दी जाती है। दारुल उलूम देवबन्द ने अपनी स्थापना से आज (हिजरी 1283 से 1424) सन 2002 तक लगभग 95 हजार महान विद्वान, लेखक आदि पैदा किये हैं। दारुल उलूम में इस्लामी दर्शन, अरबी, फारसी, उर्दू की शिक्षा के साथ साथ किताब' दर्जी का कार्य व किताबों पर जिल्दबन्दी, उर्दू, अरबी, अंग्रेजी, हिन्दी में कम्प्यूटर तथा उर्दू पत्रकारिता का कोर्स भी कराया जाता है। दारुल उलूम में प्रवेश के लिए लिखित परीक्षा व साक्षात्कार से गुजरना पड़ता है। प्रवेश के बाद शिक्षा मुफ्त दी जाती है। दारुल उलूम देवबन्द ने अपने दर्शन व विचारधारा से मुसलमानों में एक नई चेतना पैदा की है जिस कारण देवबन्द स्कूल का प्रभाव भारतीय महादीप पर गहरा है ।
संदर्भ -भारतीय मुक्ति संग्राम में मुसलमान
लेखक डॉ. व्रजकुमार पाण्डेय
पृष्ठ संख्या 96,104
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